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इतिहास अध्ययन - पूर्व मध्यकालीन / राजपूतों की उत्पत्ति
19 Oct, 2015
Admin
इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना युद्धप्रिय राजपूत जाति का उदय एवं राजस्थान में राजपूत राज्यों की स्थापना है। गुप्तों के पतन के बाद केन्द्रीय शक्ति का अभाव उत्तरी भारत में एक प्रकार से अव्यवस्था का कारण बना। राजस्थान की गणतन्त्र जातियों ने उत्तर गुप्तों की कमजोरियों का लाभ उठाकर स्वयं को स्वतन्त्र कर लिया। यह वह समय था जब भारत पर हूण आक्रमण हो रहे थे। हूण नेता मिहिरकुल ने अपने भयंकर आक्रमण से राजस्थान को बड़ी क्षति पहुँचायी और बिखरी हुई गणतन्त्रीय व्यवस्था को जर्जरित कर दिया। परन्तु मालवा के यशोवर्मन ने हूणों को लगभग 532 ई. में परास्त करने में सफलता प्राप्त की। परन्तु इधर राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी जो राजस्थानी कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होने की चेष्टा कर रहे थे। किसी भी केन्द्रीय शक्ति का न होना इनकी प्रवृत्ति के लिए सहायक बन गया। लगभग इसी समय उत्तरी भारत में हर्षवर्धन का उदय हुआ। उसके तत्त्वावधान में राजस्थान में व्यवस्था एवं शांति की लहर आयी, परतु जो बिखरी हुई अवस्था यहाँ पैदा हो गयी थी, वह सुधर नहीं सकी।
इन राजनीतिक उथल-पुथल के सन्दर्भ में यहाँ के समाज में एक परिवर्तन दिखाई देता है। राजस्थान में दूसरी सदी ईसा पूर्व से छठी सदी तक विदेशी जातियाँ आती रहीं और यहाँ के स्थानीय समूह उनका मुकाबला करते रहे। परन्तु कालान्तर में इन विदेशी आक्रमणकारियों की पराजय हुई, इनमें कई मारे गये और कई यहाँ बस गये। जो शक या हूण यहाँ बचे रहे उनका यहाँ की शस्त्रोपजीवी जातियों के साथ निकट सम्पर्क स्थापित होता गया और अन्ततोगत्वा छठी शताब्दी तक स्थानीय और विदेशी योद्धाओं का भेद जाता रहा।
राजपूतों की उत्पत्ति : राजपूताना के इतिहास के सन्दर्भ में राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन बड़ा महत्त्व का है। राजपूतों का विशुद्ध जाति से उत्पन्न होने के मत को बल देने के लिए उनको अग्निवंशीय बताया गया है। इस मत का प्रथम सूत्रपात चन्दरबदाई के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘पृथ्वीराजरासो’ से होता है। उसके अनुसार राजपूतों के चार वंश प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चैहान ऋषि वशिष्ठ के यज्ञ कुण्ड से राक्षसों के संहार के लिए उत्पन्न किये गये। इस कथानक का प्रचार 16वीं से 18वीं सदी तक भाटों द्वारा खूब होता रहा। मुँहणोत नैणसी और सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस आधार को लेकर उसको और बढ़ावे के साथ लिखा। परन्तु वास्तव में ‘अग्निवंशीय सिद्धान्त’ पर विश्वास करना उचित नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण कथानक बनावटी व अव्यावहारिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि चन्दबरदाई ऋषि वशिष्ठ द्वारा अग्नि से इन वंशों की उत्पत्ति से यह अभिव्यक्त करता हैं कि जब विदशी सत्ता से संघर्ष करने की आवश्यकता हुई तो इन चार वंशों के राजपूतों ने शत्रुओं से मुकाबला हेतु स्वंय को सजग कर लिया। गौरीशकंर हीराचन्द ओझा, सी.वी.वैद्य, दशरथ शर्मा, ईश्वरी प्रसाद इत्यादि इतिहासकारों ने इस मत को निराधार बताया है। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा राजपूतांे को सर्यू वंशीय और चन्द्रवंशीय बताते हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने कई शिलालेखों और साहित्यिक ग्रंथों के प्रमाण दिये हैं, जिनके आधार पर उनकी मान्यता है कि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं। राजपूतों की उत्पत्ति से सम्बन्धित यही मत सर्वाधिक लोकप्रिय है। राजपूताना के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने राजपूतों को शक और सीथियन बताया है। इसके प्रमाण में उनके बहुत से प्रचलित रीति-रिवाजों का, जो शक जाति के रिवाजों से समानता रखते थे, उल्लेख किया है। ऐसे रिवाजों में सूर्य पूजा, सती प्रथा प्रचलन, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान, शस्त्रों और घोड़ों की पूजा इत्यादि हैं। टाॅड की पुस्तक के सम्पादक विलियम क्रुक ने भी इसी मत का समर्थन किया है परन्तु इस विदेशी वंशीय मत का गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने खण्डन किया है। ओझा का कहना है कि राजपूतों तथा विदेशियों के रस्मों रिवाजों में जो समानता कनर्ल टाॅड ने बतायी है, वह समानता विदेशियों से राजपूतों ने प्राप्त नहीं की है, वरन् उनकी सात्यता वैदिक तथा पौराणिक समाज और संस्कृति से की जा सकती है। अतएव उनका कहना है कि शक, कुषाण या हूणों के जिन-जिन रस्मों रिवाजों व परम्पराआें का उल्लेख समानता बताने के लिए जेम्स टाॅड ने किया है, वे भारतवर्ष में अतीत काल से ही प्रचलित थीं। उनका सम्बन्ध इन विदेशी जातियों से जोड़ना निराधार है। डाॅ. डी. आर. भण्डारकर राजपूतों को गुर्जर मानकर उनका संबंध श्वेत-हूणों के स्थापित करके विदेशी वंशीय उत्पत्ति को और बल देते हैं। इसकी पुष्टि में वे बताते हैं कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के सन्दर्भ में मिलता है। इसी प्रकार उनका कहना है कि अग्निवंशीय प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चैहान भी गुर्जर थे, क्योंकि राजोर अभिलेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है। इनके अतिरिक्त भण्डारकर ने बिजौलिया शिलालेख के आधार पर कुछ राजपूत वंशों को ब्राह्मणों से उत्पन्न माना है। वे चैहानों को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण बताते हैं और गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से मानते हैं। डाॅ. ओझा एवं वैद्य ने भण्डराकर की मान्यता को अस्वीकृत करते हुए लिखा है कि प्रतिहारों को गुर्जर कहा जाना जाति की संज्ञा नहीं है वरन उनका प्रदेश विशेष गुजरात पर अधिकार होने के कारण है। जहाँ तक राजपूतों की ब्राह्मणों से उत्पत्ति का प्रश्न है, वह भी निराधार है क्योंकि इस मत के समर्थन में उनके साक्ष्य कतिपय शब्दों का प्रयोग राजपूतों के साथ होने मात्र से है। इस प्रकार राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उपर्युक्त मतों में मतैक्य नहीं है। फिर भी डाॅ. ओझा के मत को सामान्यतः मान्यता मिली हुई है। निःसन्देह राजपूतों को भारतीय मानना उचित है।
पूर्व मध्यकाल में विभिन्न राजपूत राजवंशों का उदय प्रारम्भिक राजपूत कुलों में जिन्होंने राजस्थान में अपने-अपने राज्य स्थापित किये थे उनमें मेवाड़ के गुहिल, मारवाड़ के गुर्जर प्रतिहार और राठौड़, सांभर के चैहान, तथा आबू के परमार, आम्बेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी आदि प्रमुख थे।
1. मेवाड़ के गुहिल -
इस वंश का आदिपुरुश गुहिल था। इस कारण इस वंश के राजपूत जहाँ-जहाँ जाकर बसे उन्होंने स्वयं को गुहिलवंशीय कहा। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा गुहिलों को विशुद्ध सूर्यवंशीय मानते हैं, जबकि डी. आर. भण्डारकर के अनुसार मेवाड़ के राजाब्राह्मण थे। गुहिल के बाद मान्य प्राप्त शासकों में बापा का नाम उल्लेखनीय हैं, जो मेवाड़ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। डाॅ. ओझा के अनुसार बापा इसका नाम न होकर कालभोज की उपाधि थी। बापा का एक सोने का सिक्का भी मिला है, जो 115 ग्रेन का था। अल्लट, जिसे ख्यातों में आलुरावल कहा गया है, 10वीं सदी के लगभग मेवाड़ का शासक बना। उसने हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया था तथा उसके समय में आहड़ में वराह मन्दिर का निर्माण कराया गया था। आहड़ से पूर्व गुहिल वंश की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र नागदा था। गुहिलों ने तेरहवीं सदी के प्रारम्भिक काल तक मेवाड़ में कई उथल-पुथल के बावजूद भी अपने कुल परम्परागत राज्य को बनाये रखा।
2. मारवाड़ के गुर्जर-प्रतिहार -
प्रतिहारों द्वारा अपने राज्य की स्थापना सर्वप्रथम राजस्थान में की गई थी, ऐसा अनुमान लगाया जाता है। जोधपुर के शिलालेखों से प्रमाणित होता है कि प्रतिहारों का अधिवासन मारवाड़ में लगभग छठी शताब्दी के द्वितीय चरण में हो चुका था। चूँकि उस समय राजस्थान का यह भाग गुर्जरत्रा कहलाता था, इसलिए चीनी यात्री युवानच्वांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीलो मोलो (भीनमाल) या बाड़मेर बताया है। मुँहणोत नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का उल्लेख किया है, जिनमें मण्डौर के प्रतिहार प्रमुख थे। इस शाखा के प्रतिहारों का हरिशचन्द्र बड़ा प्रतापी शासक था, जिसका समय छठी शताब्दी के आसपास माना जाता है। लगभग 600 वर्शों के अपने काल में मण्डौर के प्रतिहारों ने सांस्कृतिक परम्परा को निभाकर अपने उदात्त स्वातन्त्र्य प्रेम और शौर्य से उज्ज्वल कीर्ति को अर्जित किया। जालौर-उज्जैन-कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों की नामावली नागभट्ट से आरंभ होती है जो इस वंश का प्रवर्तक था। उसे ग्वालियर प्रशस्ति में ‘म्लेच्छों का नाशक’ कहा गया है। इस वंश में भोज और महेन्द्रपाल को प्रतापी शासकों में गिना जाता है।
3. आबू के परमार -
‘परमार’ शब्द का अर्थ शत्रु को मारने वाला होता है। प्रारंभ में परमार आबू के आसपास के प्रदेशों में रहते थे। परन्तु प्रतिहारों की शक्ति के हृास के साथ ही परमारों का राजनीतिक प्रभाव बढ़ता चला गया। धीरे-धीरे इन्होंने मारवाड़, सिन्ध, गुजरात, वागड़, मालवा आदि स्थानों में अपने राज्य स्थापित कर लिये। आबू के परमारों का कुल पुरुष धूमराज था परन्तु परमारों की वंशावली उत्पलराज से आरंभ होती है। परमार शासक धंधुक के समय गुजरात के भीमदेव ने आबू को जीतकर वहाँ विमलशाह को दण्डपति नियुक्त किया। विमलशाह ने आबू में 1031 में आदिनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था। धारावर्ष आबू के परमारों का सबसे प्रसिद्ध शासक था। धारावर्ष का काल विद्या की उन्नति और अन्य जनोपयोगी कार्यों के लिए प्रसिद्ध है। इसका छोटा भाई प ्र ह ्लादन देव वीर आ ैर विद्वान थ ा। उसने ‘पार्थ-पराक्रम-व्यायोग’ नामक नाटक लिखकर तथा अपने नाम स े पह्र लादनपरु (पालनपरु ) नामक नगर बसाकर परमारांे के साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर को ऊँचा उठाया। धारावर्ष के पुत्र सोमसिंह के समय में, जो गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव द्वितीय का सामन्त था, वस्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल ने आबू के देलवाड़ा गाँव में लूणवसही नामक नेमिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था। मालवा के भोज परमार ने चित्तौड़ में त्रिभुवन नारायण मन्दिर बनवाकर अपनी कला के प्रति रुचि को व्यक्त किया। वागड़ के परमारों ने बाँसवाड़ा के पास अर्थूणा नगर बसा कर और अनेक मंदिरों का निर्माण करवाकर अपनी शिल्पकला के प्रति निष्ठा का परिचय किया।
4. सांभर के चैहान -
चैहानों के मूल स्थान के संबंध में मान्यता है कि वे सपादलक्ष एवं जांगल प्रदेश के आस पास रहते थे। उनकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (नागौर) थी। सपादलक्ष के चौहानों का आदि पुरुष वासुदेव था, जिसका समय 551 ई. के लगभग अनुमानित है। बिजौलिया प्रशस्ति में वासुदेव को सांभर झील का निर्मातामाना गया है। इस प्रशस्ति में चैहानों को वत्सगौत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। प्रारंभ में चैहान प्रतिहारों के सामन्त थे परन्तु गुवक प्रथम जिसने हर्षनाथ मन्दिर का निर्माण कराया, स्वतन्त्र शासक के रूप में उभरा। इसी वंश के चन्दराज की पत्नी रुद्राणी यौगिक क्रिया में निपुण थी। ऐसा माना जाता है कि वह पुष्कर झील में प्रतिदिन एक हजार दीपक जलाकर महादेव की उपासना करती थी। 1113 ई. में अजयराज चैहान ने अजमेर नगर की स्थापना की। उसके पुत्र अर्णोराज (आनाजी) ने अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाकर जनोपयोगी कार्यों में भूमिका अदा की। चैहान शासक विग्रहराज चतुर्थ का काल सपादलक्ष का स्वर्णयुग कहलाता है। उसे वीसलदेव और कवि बान्धव भी कहा जाता था। उसने ‘हरकेलि’ नाटक और उसके दरबारी विद्वान सोमदेव ने ‘ललित विग्रहराज’ नामक नाटक की रचना करके साहित्य स्तर को ऊँचा उठाया। विग्रहराज ने अजमेर में एक संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया। यहीं आगे फिर कुतुबुद्दीन ऐबक ने ‘ढाई दिन का झोंपड़ा’ बनवाया। विग्रहराज चतुर्थ एक विजेता था। उसने तोमरों को पराजित कर ढिल्लिका(दिल्ली) को जीता। इसी वंशक्रम में पृथ्वीराज चैहानतृतीय ने राजस्थान और उत्तरी भारत की राजनीति मेंअपनी विजयों से एक विशिष्ट स्थान बना लिया था। 1191 ई. में उसने तराइन के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गौरी को परास्त कर वीरता का समुचित परिचय दिया। परन्तु 1192 ई. में तराइन के दूसरे युद्ध में जब उसकी गौरी से हार हो गई, तो उसने आत्म-सम्मान को ध्यान में रखते हुए आश्रित शासक बनने की अपेक्षा मृत्यु को प्राथमिकता दी। पृथ्वीराज विजय के लेखक जयानक के अनुसार पृथ्वीराज चैहान ने जीवनपर्यन्त युद्धों के वातावरण में रहते हुए भी चैहान राज्य की प्तिभा को साहित्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में पुष्ट किया। तराइन के द्वितीय युद्ध के पश्चात् भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि इस युद्ध के बाद चैहानों की शक्ति समाप्त हो गई। लगभग आगामी एक शताब्दी तक चैहानों की शाखाएँ रणथम्भौर, जालौर, हाड़ौती, नाड़ौल तथा चन्द्रावती और आबू में शासन करती रहीं। और राजपूत शक्ति की धुरीबनी रहीं। इन्हांने दिल्ली सुल्तानों की सत्ता का समय-समय पर मुकाबला कर शौर्य और अदम्य साहस का परिचय दिया। पूर्व मध्यकाल में पराभवों के बावजूद राजस्थान बौद्धिक उन्नति में नहीं पिछड़ा। चैहान व गुहिल शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहे, जिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा। इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा। चित्तौड़, बाड़ौली, आबू के मन्दिर इस कथन के प्रमाण हैं।
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