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छत्तीसगढ़ का ऐतिहासिक संदर्भ - नलवंशः, क्षेत्रिय राजवंश, बस्तर के नल और नाग वंश, छिंदक नागवंश (बस्तर), कवर्धा के फणि नागवंश
13 Oct, 2015
Admin
नलवंशः
इस वंश का समय 700 ई. है। नलवंशी शासक का मुख्य केन्द्र था बस्तर। वे हुए थे वकाटकों के समय में।दक्षिण - कौसल के कुछ जगहों में नलवंश का शासन था। नल नामक राजा से नल वंश का आरम्भ हुआ। इसके बारे में हमें जानकारी मिलती है उस अभिलेख से जो राजिम में मिला है। इस वंश के राजा भवदन्त वर्मा बहुत ही पराक्रमी थे। उन्होंने बस्तर और कौसल क्षेत्र में राज्य करते वक्त अपने साम्राज्य को बढ़ाया।स्कन्द वर्मा इस वंश के और एक शक्तिशाली राजा हुए। वे बस्तर और दक्षिण कौसल में काफी समय तक शासन करते रहे थे। कुछ विद्वान ऐसा कहते हैं कि उनके राज्य को पाण्डु वंशियों ने समाप्त कर दिया था।
क्षेत्रिय राजवंश :
क्षेत्रिय राजवंशों में प्रमुख थे :छत्तीसगढ़ में क्षेत्रिय राजवंशो का शासन भी कई जगहों पर मौजूद था। उसके बारे में यहाँ अलग से संक्षिप्त चर्चा निम्नलिखित है - बस्तर के नल और नाग वंश।, कांकेर के सोमवंशी।, और कवर्धा के फणि-नाग वंशी।
बस्तर के नल और नाग वंश :
कुछ साल पहले अड़ेगा, जो जिला बस्तर में स्थित है, वहाँ से कुछ स्वर्ण-मुद्राएं मिली थीं। स्वर्ण-मुद्राओं से पता चलता है कि वराह राज, जो नलवंशी राजा थे, उनका शासन बस्तर के कोटापुर क्षेत्र में था। वराहराज का शासन काल ई. स. 440 में था। उसके बाद नल राजाओं जैसे भवदन्त वर्मा, अर्थपति, भट्टाटक का सम्बन्ध बस्तर के कोटापुर से रहा। ये प्राप्त लेखों से पता चलता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि व्याध्रराज नल-वंशी राजा थे। ऐसा कहते हैं कि व्याध्रराज के राज्य का नाम महाकान्तर था। और वह महाकान्तर आज के बस्तर का वन प्रदेश ही है। व्याध्रराज के शासन की अवधि थी सन् 350 ई.। नल वंशी राजाओं में भवदन्त वर्मा को प्रतापी राजा माना जाता है। उनके शासन काल की अवधि सन् 440 से 465 ई. मानी जाती है। अर्थपति भट्टारक, भवदन्त वर्मा के पुत्र ने महाराज की पदवी धारण कर सन् 465 से 475 ई. तक शासन किया। अर्थपति के बाद राजा बने उसके भाई स्कन्द वर्मा जिन्होंने शत्रुओं से अपने राज्य को दुबारा हासिल किया था। ऐसा कहते हैं कि स्कन्द वर्मा ने बस्तर से दक्षिण - कौसल तक के क्षेत्र पर शासन किया था। स्कन्द वर्मा के बाद राजा बने थे नन्दन राज। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो सका कि वे किसके पुत्र थे। नलवंश में एक और राजा के बारे में पता चलता है - उनका नाम था पृथ्वी राज। वे बहुत ही ज्ञानी थे। चिकित्सा शास्र में उनकी दखलंदाज़ी थी उनके बाद राजा बने विरुपराज। उनके बारे में यह कहा जाता है कि वे बहुत ही सत्यवादी थे। उनकी तुलना राजा हरिश्चन्द्र के साथ ही जाती है। उसके बाद उनका पुत्र विलासतुंग राजा बना। विलासतुंग पाण्डुवंशीय राजा बालार्जुन के समसामयिक थे। विलासतुंग ने ही राजिम में राजीव लोचन मंदिर का निर्माण करवाया। बालार्जुन की माँ ने सिरपुर में लक्ष्मण मंदिर निर्माण करवाया था। उसी मन्दिर का अनुकरण करके राजिम में राजीव लोचन मन्दिर बनवाया गया था। विलासतुंग वैष्णव था। विलास तुंग के बाद राजा बने थे भीमसेन, नरेन्द्र धवल व पृथ्वी-व्याध्र। नल वंशियों के अस्तित्व के बारे में कहते हैं कि नवीं सदी तक वे महाकान्तार और उसके आसपास के भागों में थे। दसवीं सदी की शुरुआत में कल्चुरि शासकों के आक्रमण के बाद पराजित नल वंशियों ने अपनी सत्ता खो दी। पर कुछ साल बाद बस्तर कोटापुर अंचल में हम फिर से नल वंशियों के उत्तराधिकारी को छिंदक-नागवंशिय के रुप में देखते हैं।
छिंदक नागवंश (बस्तर) :
बस्तर के प्राचीन नाम के सम्बन्ध में अलग-अलग मत हैं। कई "चक्रकूट" तो कई उसेे "भ्रमरकूट" कहते हैं। नागवंशी राजा इसी "चक्रकूट" या "भ्रमरकूट" में राज्य करते थे। सोमेश्वरदेव थे छिंदक नागों में सबसे जाने-माने राजा। वे अत्यन्त मेधावी थे। धनुष चलाने में अत्यन्त निपुण थे। उन्होंने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। वे शासन करते रहे सन् 1 096 से सन् 1111 तक। उनकी मृत्यु के बाद कन्दरदेव राजा बने और शायद सन् 111 1 से सन् 11 1 2 के बीच राज्य करते रहे। उसके बाद जयसिंह देव का शासन काल आरम्भ हुआ। अनुमान है कि सन् 1122 से सन् 1147 तक उनका शासन रहा। जयसिंह देव के बाद नरसिंह देव और उसके बाद कन्दर देव। विद्वानों का यह मानना है कि इस वंश के अंतिम शासक का नाम था हरिश्चन्द्र देव। हरिश्चन्द्र को वारंगल के चालुक्य अन्नभेदव (जो काकतीय वंश के थे) ने हराया। इस काकतीय वंश का शासन सन् 1148 तक चलता रहा। इस प्रकार चक्रकूट या भ्रमरकूट में छिंदक नाग वंशियों का शासन 400 सालों तक चला। वे दसवीं सदी के आरम्भ से सन् 1313 ई. तक राज्य करते रहे। विद्वानों का यह मानना है कि बस्तर में नागवंशी शासकों का शासन अच्छा था। लोगों में उनके प्रति आदरभाव था। अनेक विद्वान उनके दरबार में थे। उस समय की शिल्पकारी भी उच्चकोटि की थी। एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात यह है कि नाग वंशियों के शासन कार्य में महिलाओं का भी योगदान रहा करता था। ये महिलायें राजधराने की होती थीं। प्रशासन में प्रजा की भी सहयोगिता पूरी तरह रहती थी। पर नागयुग में सती प्रथा थी। इससे पता चलता है कि महिलाओं का जीवन कैसा था। नाग युग में संस्कृत और तेलगु दोनों भाषाओं को राजभाषाओं की मान्यता मिली थी नल राजा संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि का इस्तमाल करते थे। उस युग में राजा ही न्याय विभाग का प्रमुख होता था। मृत्युदण्ड राजा ही देता था और मृत्युदण्ड को क्षमा भी राजा ही करता था। नल राजा शिव और विष्णु के उपासक थे। वे ब्राह्मणों की खूब कदर करते थे। वे ब्राह्मणोंे को ज़मीन देकर अपने राज्य में बसाते थे। जब हम नाग युग के मूर्ति-शिल्प की ओर देखते हैं तो हमें यह पता चलता है कि उस समय राज्य में धार्मिक उदारता थी। मूर्ति - शिल्प में हमें उमा-महेश्वर, महिषासुर, विष्णु, हनुमान, गणेश, सरस्वती, चामुंडा, अंबिका आदि नाम की जैन प्रतिमाएं मिलती हैं। बस्तर में नल नाग राजाओं का शासन करीब एक हज़ार वर्ष तक रहा।
कवर्धा के फणि नागवंश :
कवर्धा रियासत जो बिलासपुर जिले के पास स्थित है, वहाँ चौरा नाम का एक मंदिर है जिसे लोग मंडवा-महल के नाम से जानते हैं। उस मंदिर में एक शिलालेख है जो सन् 1349 ई. मेंे लिखा गया था उस शिलालेख में नाग वंश के राजाओं की वंशावली दी गयी है। नाग वंश के राजा रामचन्द्र ने यह लेख खुदवाया था। इस वंश के प्रथम राजा अहिराज कहे जाते हैं। भोरमदेव के क्षेत्र पर इस नागवंश का राजत्व 14 वीं सदी तक कायम रहा।
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