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नृत्य एक सजीव कला है. संगीत क्षेत्र में श्रव्य प्रक्रिया प्रमुख रहती है, जबकी नृत्य में दृश्य प्रक्रिया प्रमुख रहती है. भारत की नृत्य कला अत्यन्त प्राचीन एवं समृध्द है. नृत्य भारतीय संस्कृती का अभिनव अंग है. भगवान शंकर के तांण्डव और पार्वती के लास्य नृत्य की कहानी हमारे धर्म ग्रंन्थो में देखने को मिलती है.
नृत्य क पांच तत्व है : 1. मुद्रा 2. रुप सौंदर्य 3.भाव 4.ताल एवं लय 5.अभिनव आदि.
छत्तीसगढ़ भी लोक नृत्यों का घर रहा है. यहाँ की आदिम जातीयाँ नृत्य की दिवानी रही है. यहाँ जन्म, विवाह, तीज-त्यौहार, मेले और उत्सवों मे प्रथम संगीत और नृत्य का प्रचलन है.
छत्तीसगढ लोक कथाओं की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। मानव की प्राचीनतम संस्कृति यहाँ भित्ति चित्रों, नाट्यशालाओं, मंदिरों और लोक नृत्यों के रूप में आज भी विद्यमान है। यहाँ की लोक रचनाओं में नदी-नाले, झरने, पर्वत और घाटियां तथा ास्य यामला धरती की कल्पना होती है। मध्य काल में यहाँ अनेक जातियां आयीं और अपने साथ आर्य संस्कृति भी ले आयी। यहाँ आदिवासियों का नृत्य-सरहुल, मारियों का ककसार, परजा का परब, उरांवों का डोमकच, बैगा और गोड़ों का करमा के अलावा डंडा, सुवा आदि लोक नृत्य प्रमुख है। यदुवंशियों का रावत नृत्य और सतनामियो का पंथी नृत्य आज छत्तीसगढ़ वासियों के बीच बहुत लोकप्रिय है। छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों में बहुत कुछ समानता होती है। ये नृत्य मात्र मनोरंजन के साधन नहीं है बल्कि जातीय नृत्य, धार्मिक अनु ठान ओर ग्रामीण उल्लास के अंग भी हैं। देव पितरों की पूजा-अर्चना के बाद लोक जीवन प्रकृति के सहचर्य के साथ घुल मिल जाता है। यहाँ प्रकृति के अनुरूप ही ऋतु परिवर्तन के साथ लोक नृत्य अलग-अलग शैलियों में विकसित हुआ। यहाँ के लोक नृत्यों मे मांदर, झांझ, मंजिरा और डंडा प्रमुख रूप से प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार मयूर के पंख, सुअर के सिर्से, शोर के नाखून, गूज, कौड़ी और गुरियों की माला इनके प्रमुख आभूषण हैं।
रावत नृत्य-
सुआ नृत्य :-
डंडा या सैला नृत्य :-
करमा नृत्य -
यह नृत्य छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति का पर्याय है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी, गैर आदिवासी सभी का यह लोक मांगलिक नृत्य है। करमा, सतपुड़ा और विंध्य की पर्वत श्रेणियों के बीच सुदूर ग्रामों में भी प्रचलित है। शहडोल, मंडला के गोंड और बैगा तथा बालाघाट और सिवनी के कोरकू और परधान जातियाँ करमा के ही कई रूपों को नाचतीं हैं। बैगा करमा, गोंड़ करमा, भुंइयाँ करमा आदि जातीय नृत्य माना जाता है। छत्तीसगढ़ के एक लोक नृत्य में करमसेनी देवी का अवतार गोंड के घर में माना गया है, दूसरे गीत में घसिया के घर माना गया है।
करमा नृत्य में स्त्री-पुरुष सभी भाग लेते हैं। यह वर्षा ऋतु का छोड़कर सभी ऋतुओं में नाचा जाता है। सरगुजा के सीतापुर के तहसील, रायगढ़ के जशपुर और धरमजयगढ़ के आदिवासी इस नृत्य को साल में सिर्फ़ चार दिन नाचते हैं। एकादशी करमा नृत्य नवाखाई के उपलक्ष्य में, पुत्र प्राप्ति, पुत्र के लिए मंगल कामना, अठई नामक करमा नृत्य क्वांर में भाई-बहन के प्रेम सम्बंधी, दशई नामक करमा नृत्य और दीपावली के दिन करमा नृत्य युवक-वतियों के प्रेम से सराबोर होता है।
करमा नृत्य में मांदर और झांझ-मंजीरा प्रमुख वाद्य यंत्र है। इसके अलावा टिमकी ढोल, मोहरी आदि का भी प्रयोग होता है। करमा नर्तक मयूर पंख का झाल पहनता है, पगड़ी में मयूर पंख के कांड़ी का झालदार कलगी खोंसता है। रुपया, सुताइल, बहुंटा ओर करधनी जैसे आभूषण पहनता है। कलई में चूरा, और बाँह में बहुटा पहने हुए युवक की कलाइयों और कोहनियों का झूल नृत्य की लय में बड़ा सुन्दर लगता है। इस नृत्य में संगीत योजनाबद्ध होती है। राग के अनुरूप ही इस नृत्य की शैलियाँ बदलती है। इसमें गीता के टेक, समूह गान के रूप में पदांत में गूँजते रहता है। पदों में ईश्वर की स्तुति से लेकर शृंगार परक गीत होते हैं। मांदर और झांझ की लय-ताल पर नर्तक लचक लचक कर भाँवर लगाते, हिलते-डुलते, झुकते-उठते हुये वृत्ताकार नृत्य करते हैं।
डोमकच नृत्य -
यह आदिवासी युवक-युवतियों का प्रिय नृत्य है। यह प्राय: शादी-ब्याह के अवसर पर किया जाता हे, इसलिए इसे विवाह नृत्य भी कहा जाता है। यह नृत्य अगहन से आषाढ़ तक रात भर किया जाता है। प्राय: इसे वृत्ताकार रूप में नाचा जाता है। इसमें एक लड़का और एक लड़की जो गले और कमर में हाथ रखकर आगे-पीछे झुककर स्वच्दछंदता पूर्वक नाचते हैं। मांदर, झांझ ओर टिमकी इस नृत्य का प्रमुख वाद्य यंत्र है। इस नृत्य के गीतों में सदरी बोली का बाहुल्य होता है।
बस्तर के नृत्य -
छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का प्रमुख क्षेत्र बस्तर है। प्रकृति के अलौकिक सौंदर्य ने यहाँ के निवासियों को कला प्रिय बना दिया है। यहाँ नृत्य की विधिता है। हल्बा, भतरा, परजा, मूंडा, मारिया, गोंड, बैगा, भूरिया, घुरूवा आदि यहाँ के मूल निवासी हैं। उनके अलग-अलग जातीय नृत्य हैं। इनमें माड़ियों का ककसार, डंडामी माड़ियों का सींगों वाला नृत्य, तीना-तामेर नृत्य, डंडारी नाचा, मड़ई, परजा जाति का परब नृत्य, घुरुवाओं का घुरुवा नृत्य, कोयों का कोया नृत्य, गेंडी नृत्य, भतराओं का भतरा वेद पुरुष स्मृति और छेरना नृत्य प्रमुख है। रिलो और हुलकी गोंड़ स्त्रियों का प्रिय नृत्य है। ये सभी वृत्ताकार नृत्य हैं।
सरहुल नृत्य -
यह नृत्य सरगुजा, जशपुर और धरमजयगढ़ तहसील में बसने वाले उरांव जाति का जातीय नृत्य है। आदिवासियों का विश्वास है कि साल वृक्षों के समूह में जिसे ''सरना'' कहा जाता है, महादेव वास करते हैं। महादेव और देव पितरों को प्रसन्न करके सुख शांति की कामना के लिए चैत पूर्णिमा की रात इस नृत्य का आयोजन किया जाता है। इनका बैगा सरना वृक्ष की पूजा करता है। वहाँ घड़े में पानी रखकर सरना के फूल से पानी छिंचा जाता है। वहीं पर सरहुल नृत्य किया जाता है। सरहुल नृत्य के प्रारंभिक गीतों में धर्म प्रवणता और देवताओं की स्तुति होती है लेकिन ज्यों ज्यों रात बढ़ती जाती है त्यों त्यों नृत्य-गीत मादक होने लगता है। शराब का सेवन भी इस अवसर पर किया जाता है। यह नृत्य प्रकृति पूजा का एक आदिम रूप है।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी और सुदूर वनांचल भी आज महँगाई की मार और शहरीकरण के प्रदूषण से प्रभावित हुआ और गाँव की स्वच्छंदता, उसकी लोक संस्कृति और रहन-सहन में बहुत अंतर आया है जिससे उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। आज शहरों में लोकोत्सव मनाकर इनकी संस्कृतियों को ज़िंदा रखने का प्रयास किया जा रहा है मगर इसके आयोजन में शहरीकरण की पूरी छाप दिखाई देती है। आज ये लोक संस्कृति के नृत्य केवल उत्सव और नेताओं के स्वागत में किया जाने वाला राग दरबारी नृत्य जैसा हो गया है। पहले ये नृत्य प्रकृति से जोड़ने वाला हुआ करता था, आज प्रदूषण का शिकार होते जा रहा है। यह एक चिंतनीय बात है।
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